दिलवालों की दिल्ली जब से बनी है तब से ही यह कोलाहल का केन्द्र है. दिल्ली हमेशा से भारत का दिल रही है. इस दिल ने सब सह कर भी हिंदुस्तान को कई ऐसे मौके दिए हैं जिन्हें हम कभी नहीं भूल सकते. चाहे वह आजादी के बाद पहली बार स्वतंत्रता का गवाह बना लाल किला हो या फिर इंडिया गेट की परेड, देश की संसद हो या आतंकवादियों का हमला सबकी गवाह है दिल्ली.
भारत के इतिहास में शायद ही कोई दूसरा शहर इतनी बार बसा और उजड़ा, जितनी बार शहर दिल्ली. माना जाता है कि 1450 ईसा पूर्व ‘इंदरपथ’ (इंद्रप्रस्थ) के रूप में पहली बार पांडवों ने दिल्ली को बसाया. इस आधार पर दिल्ली तीन से साढ़े तीन हज़ार साल पुराना शहर है. इंद्रप्रस्थ वो जगह था जहां हम आज पुराने किले के खंडहर देखते हैं.
भारत के तत्कालीन शासक किंग जॉर्ज पंचम ने 12 दिसंबर, 1911 को बुराड़ी में सजे दरबार में नई राजधानी की घोषणा की थी. किंग जॉर्ज पंचम के इस फैसले ने दिल्ली की तकदीर ही बदल दी. दिल्ली को न सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर नई पहचान मिली. आज 2011 में दिल्ली को राजधानी बने सौ साल हो गए हैं. इन सौ वर्षो में दिल्ली ने कई उतार-चढ़ाव देखे. विकास की गति ने दिल्ली की तस्वीर पूरी तरह से बदल दी है.
दिल्ली की कहानी
सौ वर्ष पहले जब जार्ज पंचम का राज्यभिषेक हुआ और कलकत्ता से दिल्ली को राजधानी बनाने का फैसला हुआ तो कोई नहीं जानता था कि दिल्ली उसके बाद हमेशा के लिए राजनीतिक गलियारों की अहम जगह बन जाएगी. इस बनती बिगड़ती दिल्ली की कहानी भी बड़ी अनूठी है.
12 दिसंबर, 1911 को दिल्ली को भारत की राजधानी बनाया गया और दिल्ली को मिली अपनी नई पहचान. 1772 से 1911 तक कलकत्ता ही भारत की राजधानी थी. आज के ही दिन जार्ज पंचम का भारत के शासक के तौर पर राज्याभिषेक हुआ और दिल्ली में एक विशाल दरबार लगाया गया. यह दरबार कोई मामूली दरबार नहीं था, बल्कि इस दरबार में अंग्रेज हुक्मरानों ने अपने को शासक के तौर पर भारत पर काबिज कर दिया था. इस राज्याभिषेक के दौरान हाजिरी लगाने पूरे देश के नवाब और राजा पहुंचे थे. इसका अर्थ यह था कि उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को स्वीकार कर लिया था.
मिर्जा गालिब की दिल्ली
दिल्ली पर काबिज आखिरी मुगल बादशाह खुद बड़े आला दर्जे के शायर थे और उनके मुशायरे में अकसर मिर्जा गालिब और जौक जैसे शायर शिरकत करते थे. उस वक्त के लालकिला में इस मुशायरे के बीच वाहवाही की आवाजें खूब जोर-शोर से गूंजा करती थीं.
उस वक्त की श्वेत श्याम दिल्ली आज पूरी तरह से तबदील हो चुकी है. वक्त के साथ दिल्ली की खूबसूरती पर भी चार चांद लग गए हैं. उस वक्त की हवेलियां आज भी दिल्ली में शानौ शौकत की मिसाल पेश करती हैं. चंद दरवाजों में रची बसी उस वक्त की दिल्ली आज भारत के सियासी गलियारों में कितनी अहम है इसे बताने की कोई जरूरत यहां समझ नहीं आती. दिल्ली की खूबसूरती और यहां की आबोहवा पर ही दिल्ली के शायर ने कहा था “कौन जाए जौक अब दिल्ली की गलियां छोड़ कर.” वहीं मिर्जा गालिब को भी दिल्ली इतनी रास आई कि आखिर तक उन्होंने इस दिल्ली का साथ नहीं छोड़ा.
आज की दिल्ली
ऐतिहासिक दिल्ली आज एक आधुनिक दिल्ली के रूप में परिवर्तित हो गई है. हां, इतना जरूर है कि यहां ऐतिहासिक स्वरूप को भी सहेज कर रखा गया है. अत्याधुनिक परिवहन सुविधाएं, चमचमाती सड़कें, फ्लाईओवरों का जाल, आइजीआइ एयरपोर्ट पर अंतरराष्ट्रीय स्तर का टी-3 टर्मिनल, अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त स्टेडियम इत्यादि ने दिल्ली को वह तस्वीर दी है, जिस पर इतराया जा सकता है. लेकिन यह तस्वीर पूरी दिल्ली की तकदीर नहीं बन पाई है.
लेकिन जैसा कि हम हमेशा से कहते रहे हैं कि दिल्ली ने अच्छा बुरा सब देखा है तो इस दिल्ली के साथ कई बुरी चीजें भी हुईं. दिल्ली पर 1984 के दंगों से लेकर आतंकवाद तक कई बार खून के धब्बे लगे तो वहीं आज दिल्ली की सड़कें महिलाओं के लिए एक खौफनाक जगह बन चुकी हैं. दिलवालों की दिल्ली को कई बार महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित जगहों में भी गिना गया है.
दिल्ली कई मायनों में अंतरराष्ट्रीय स्तर का शहर बन गई है लेकिन जनसंख्या विस्फोट का सही आकलन कर उसके अनुसार नियोजित विकास में विफलता ही हाथ लगी है. 1911 में दिल्ली को जब देश की राजधानी बनाया गया था, उस समय इसकी आबादी केवल चार लाख के करीब थी जो अब बढ़कर करीब 1.68 करोड़ हो गई है.
तब से अब तक दिल्ली की सूरत भले ही बदल गई हो लेकिन नहीं बदली इसकी शान जो आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है.
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