पहले पश्चिम बंगाल में कार्टून बनाने के विवाद में एक कार्टूनिस्ट को जेल हो जाती है और फिर किताब में छपे एक कार्टून पर बवाल संसद तक जाता है. आखिर इस देश में हम किस आधार पर अभिव्यक्ति की आजादी की बात करते हैं? क्या इसे ही हम आजादी कहते हैं जहां किसी को अपनी बात कहने के लिए कार्टून का भी इस्तेमाल करने पर मनाही है और अगर कार्टून के माध्यम से हमारे नौनिहाल किसी बात को बहुत ही आसानी से समझ पाते हैं तो इसमें बुराई क्या है? कब तक हम अपनी दकियानुसी बातों के आधार पर अभिव्यक्ति पर पहरा देते रहेंगे? क्या सरकार कल को हमारे आपस में बातचीत करने पर भी सेंसर लगाएगी?
हाल ही में एक बार फिर संप्रग सरकार की खूब किरकिरी हो रही है. मुद्दा है किताबों में कार्टून छपने का. एनसीईआरटी की 11वीं की किताब में अंबेडकर के कार्टून को लेकर उठा विवाद अभी शांत ही हुआ था कि सोमवार को एनसीईआरटी की ही 9वीं कक्षा की किताब के कार्टूनों को लेकर पूरी लोकसभा एकजुट हो गई. कक्षा 9 में पिछले छह साल से पढ़ाई जा रही एनसीईआरटी की पुस्तक ‘डेमोक्रेटिक पॉलिटिक्स’ में इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, शरद यादव, लालू प्रसाद, सोनिया गांधी समेत कई नेताओं के कार्टून हैं.
अब सरकार और विपक्ष के लोगों का कहना है कि पुराने जमाने के प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट शंकर और इरफान के ये कार्टून विचारों की स्वतंत्रता के लिहाज से ठीक हैं. लेकिन यह परिपक्व लोगों के लिए हैं. बच्चों को अगर इस तरह के व्यंग्य वाले कार्टून पढ़ाए जाएंगे तो राजनीति और लोकतंत्र के लिए खतरा है. पर अगर यह खतरा है तो सवाल उठता है कि इन कार्टूनों में बुराई क्या है?
कार्टूनों के माध्यम से बच्चों को सीख देने की कोशिश एनसीईआरटी के विद्वान लोगों की ही सोच है. एक किताब को तैयार करने के लिए जो प्रतिनिधि मंडल बैठाई जाती है उसमें कई विद्वान होते हैं और फिर किताब बनने के बाद कई बडे जानकरों के पास से इसे “पास” होने के बाद ही बच्चों तक लाया जाता है. ऐसे में अगर किताब बनाने वाले शिक्षकों और प्रोफेसरों ने इन कार्टूनों पर कोई ऐतराज नहीं जताया तो संसद में बैठे लोगों का इस पर सवाल उठाना गैर-लाजिमी है. अगर अपनी साख और इज्जत की इतनी ही चिंता है तो इन सांसदों और नेताओं को समाज के लिए ऐसा काम करने चाहिए ताकि लोग इनकी प्रशंसा करें ना कि इनका मजाक बनाएं.
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