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यूपीए 2 के तीन साल: सवालों से भरा समय

3 Years of UPA Government.

“मजबूरी,मजबूरी और मजबूरी” यह तीन शब्द यूपीए 2 के कार्यकाल के तीन साल की हालत को बयां करने के लिए काफी हैं. एक मजबूर देश का मजबूर प्रधानमंत्री ना जानें किस मजबूरी में बंधा है कि कुछ बोलने से पहले भी उसे आलाकमान की सलाह लेनी पड़ती है.


MANMOHAN SINGH AND SONIAएक मजबूर प्रधानमंत्री की कहानी

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कमजोर हैं. कमजोरी की ही परिणति है मजबूरी. और मनमोहन सिंह की मजबूरी का मुख्य कारण है कि उन्हें सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनाया है. संविधान के अनुसार वह संसद के प्रति जवाबदेह हैं, लेकिन असलियत में वह सोनिया गांधी की कृपा से ही प्रधानमंत्री हैं और इसलिए वह अपनी जवाबदेही सोनिया गांधी के प्रति समझते हैं. यह उनकी मजबूरी ही है कि देश के रेलमंत्री को एक राज्य के मुख्यमंत्री के दबाव में रातों-रात बदल दिया जाता है, हजारों-करोड़ो के घोटालों पर प्रधानमंत्री मुख्यालय चुप्पी साधे रहता है और देश कलमाडी और ए राजा जैसे भ्रष्ट नेताओं के हाथों लुटता रहता है.


गठबंधन के सरकार की कहानी

संप्रग-2 के तीन साल का ज्यादातर समय प्रधानमंत्री और कांग्रेस के लिए सहयोगी संगठनों की मान-मनौव्वल में ही गुजरा है. ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस हो या करुणानिधि की द्रमुक, सरकार के किसी फैसले पर ज्यों ही सहयोगी दल का शिकंजा कसा, कांग्रेस के इशारे पर प्रधानमंत्री एक-दो नहीं, चार कदम पीछे हट गए. स्थिति ऐसी बन गई है जिसमें सरकार और संगठन दोनों ही लकवाग्रस्त दिखते हैं. घरेलू मोर्चो पर ही नहीं, मनमोहन की दूसरी पारी में विदेश नीति के मोर्चे पर भी गिनाने को कुछ नहीं है.


कांग्रेस के “हीरो” की कहानी

कांग्रेस ने अपनी पार्टी के युवा चेहरे के नाम पर राहुल गांधी को आगे किया लेकिन यूपी जो कभी कांग्रेस का गढ़ माना जाता था वहीं राहुल गांधी अखिलेश यादव जैसे नए नेता से पीछे रह गए. राहुल का करिश्मा उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, उत्तराखंड में नहीं दिखने के बाद उनकी संगठन पर पकड बेहद कम दिख रही है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का करिश्मा तो पहले भी नहीं था. अब ईमानदारी का उनका कवच भी टूट चुका है. ग्लोबल मंदी के दौर में सात फीसदी की विकास दर पाकर भले ही वे अपनी पीठ थपथपा लें, लेकिन भ्रष्टाचार और महंगाई से कमर तुड़वा बैठी आम जनता के लिए यह महज आंकड़ा भर है.


हां, अगर इन तीन सालों में कांग्रेस की तरफ से किसी ने खूब वाहवाही बटोरी तो वह हैं दिग्विजय सिंह और कपिल सिब्बल. लेकिन इन नेताओं को भी देश ने मात्र “गलत बोलने वाले नेताओं” की ही संज्ञा दी.


खोई हुई सोनिया गांधी

सोनिया गांधी जो कभी कांग्रेस की प्रतीक हुआ करती थीं ना जानें वह तीन साल के लिए कहां गायब हो गई हैं. इन तीन सालों में वह एक बार भी सशक्त रूप से जनता के सामने नहीं आई हैं. अगर यूपीए 2 की विफलता का कोई मुख्य कारण है तो वह सोनिया गांधी की राजनीति से थोड़ी दूरी और गंठबंधन के आगे झुकने को माना जा सकता है.


तो अगर सही शब्दों में आंकलन किया जाए तो यूपीए-2 के पास अनिर्णय, अकर्मण्यता और घपले-घोटालों के अलावा बहुत कुछ नहीं है.


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