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कलाकारों और कट्टरपंथियों के बीच यह कैसा टकराव !!

protest against Viswaroopamकमल हासन की मेगा-बजट फिल्म ‘विश्वरूपम’ ने समाज में एक अलग तरह का टकराव पैदा कर दिया है. इस टकराव में एक तरफ वह लोग हैं जो अपनी फिल्मों, किताबों और कृतियों द्वारा समाज को आइना दिखाते हैं तो दूसरी ओर वह लोग है जो हर समय इस बात का विरोध करने के लिए तैयार बैठे रहते हैं कि कहीं कला के द्वारा धर्म के मूल्य को नीचे तो नहीं गिराया जा रहा है.


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गौरतलब है कि 95 करोड़ रुपये के बजट से तैयार हुई ‘विश्वरूपम’ को तमिलनाडु सरकार ने मुस्लिम संगठनों द्वारा विरोध किए जाने के चलते ‘साम्प्रदायिक सद्भाव बनाए रखने’ के उद्देश्य से प्रतिबंधित कर दिया है. मुस्लिम संगठनों को इस फिल्म में मुस्लिम किरदारों के चित्रण का तरीका उचित नहीं लगा. उधर, कमल हासन ने इस प्रतिबंध के खिलाफ मद्रास हाईकोर्ट याचिका दायर की है. सरकार द्वारा इस प्रतिबंध पर कलाकारों ने इसकी कड़ी आलोचना की है. दक्षिण भारतीय सुपरस्टार रजनीकांत इस प्रतिबंध पर कमल हसन के साथ हैं.


उधर एक न्यूज चैनल से बातचीत में भी लेखक सलमान रश्दी ने कहा कि भारत में सांस्कृतिक इमरजेंसी है. कलाकारों के पास अपना बचाव करने को कोई गिरोह नहीं होता. कला और संस्कृति पर हमला करना मुश्किल नहीं है. जिम्मेदार लोग जिनसे सुरक्षा की उम्मीद की जाती है वह कलाकारों के अधिकारों की रक्षा नहीं करते. उलटे कलाकारों को ही दोष देते हैं. सलमान रुश्दी ने यह बात उस संदर्भ में कही है जब पिछले साल उनकी पुस्तक सैटेनिक वर्सेज को लेकर उठे विवाद और उस पर लगी पाबंदी के चलते उन्हे जयपुर के साहित्य समारोह में भाग नहीं लेने दिया गया था.


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अभिव्यक्ति की आजादी या कला का भोंडा प्रदर्शन ?

कला को प्रदर्शित करने को लेकर जिस तरह से विरोध हो रहा है उसने कई लोगों को अपनी राय रखने को मजबूर किया है. अगर इस पूरे मुद्दे पर नजर डालें तो पता चलता है कि एक सिरा अभिव्यक्ति के सवाल पर सरकार के रवैये से जुड़ा हुआ है, तो दूसरा सिरा देश में बढ़ रहे कट्टरपंथ से. अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों का मानना है कि किसी भी कलाकार को अपने विचार रखने की पूरी छूट होनी चाहिए. उन्हे समाज की छुपी हुई वास्तविकताओं को बाहर निकालने की आजादी मिलनी चाहिए. जो लोग इसका विरोध करते हैं असल में वह इस बात से अंजान है कि उनका विरोध किस पर है. वे बस अपने धर्मगुरुओं के स्वर आलापने लगते हैं.


वहीं दूसरी तरफ धार्मिक कट्टरपंथियों का मानना है कि इस तरह की कला मुख्य मकसद होता है धर्म और जाति को निशाना बनाकर अपने हित साधना. कला को प्रदर्शित करने वाले यह नहीं समझते कि उनके स्व हित साधने के चक्कर में समाज में कितना बड़ा टकराव पैदा हो सकता है. अगर सरकार ऐसे मामलों में तत्काल पतिबंध लगाती है तो वह सही करती है. उनका मानना है कि कलाकारों को अपनी कला प्रदर्शित करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनकी यह कला समाज के किसी वर्ग को ठेस तो नहीं पहुंचा रही है.


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