अपने आप को लोकतांत्रिक पार्टी होने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी को राजनाथ सिंह के रूप में एक नया अध्यक्ष मिल चुका है. इससे पहले नितिन गडकरी ने भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते दोबारा अध्यक्ष पद का चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया था. राजनाथ सिंह को ऐसे समय में पार्टी का अध्यक्ष बनाया है जब 2014 के चुनाव के लिए लगभग देश की सभी पार्टियां कमर कस चुकी हैं. एक अध्यक्ष के रूप में राजनाथ सिंह का यह दूसरा कार्यकाल है.
(पढ़ें) न्यायमूर्ति जेएस वर्मा समिति की रिपोर्ट
राजनाथ सिंह का जीवन
एक आम कार्यकर्ता से भाजपा के शीर्ष केंद्रीय नेतृत्व में शामिल होने वाले राजनाथ सिंह का जन्म 10 जुलाई, 1951 को उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के एक किसान परिवार में हुआ. उनके पिता का नाम राम बदन सिंह और माता का नाम गुजराती देवी था. राजनाथ ने गोरखपुर विश्वविद्यालय से भौतिकी विषय में पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की है. उसके बाद 1971 में केबी डिग्री कॉलेज में वह प्रोफेसर नियुक्त किए गए. 13 साल की उम्र से ही राजनाथ सिंह का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़ाव हो गया था.
राजनाथ सिंह का राजनीतिक कॅरियर
इमरजेंसी के दौरान कई महीनों तक जेल में बंद रहने वाले राजनाथ सिंह को 1975 में जन संघ ने मिर्जापुर जिले का अध्यक्ष बनाया. वह मिर्जापुर से ही पहली बार 1977 में विधायक बने. उस समय उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की यूथ विंग की कमान राजनाथ के हाथों में ही थी. 1986 में राजनाथ सिंह को यूथ विंग के लिए राष्ट्रीय महासचिव चुना गया.
संघ के चहेते राजनाथ सिंह 1991 में उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार में शिक्षा मंत्री रह चुके हैं. उन्होंने बतौर शिक्षा मंत्री एंटी-कॉपिंग एक्ट लागू करवाया था. साथ ही वैदिक गणित को तब सिलेबस में भी शामिल करवाया था. वह 1994 में राज्यसभा के लिए चुने गए. 1997 में वह उत्तर प्रदेश से भाजपा के अध्यक्ष चुने गए. वह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भूतल परिवहन मंत्री बनाए गए. वह 2000 से 2002 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं. उन्हें पहली बार 2005 में भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया.
वाजपेयीके पसंदीदा नेता
राजनाथ की जिन्दगी में एक कार्यकर्ता से देश के बड़े नेता तक के सफर में अगर किसी का सबसे ज्यादा योगदान है तो वह हैं अटल बिहारी वाजपेयी. राजनाथ सिंह को वाजपेयी ने भाजपा में अप्रासंगिक नेता से प्रासंगिक नेता बना दिया. उनके मुख्यमंत्रीत्व से लेकर 2005 में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने में अटल बिहारी वाजपेयी का मुख्य योगदान रहा. आज भले ही लाल कृष्ण आडवाणी राजनाथ के अध्यक्ष बनने से खुश हैं लेकिन एक दौर वह भी था जब 2005 में आडवाणी पार्टी अध्यक्ष पद से हटने के बाद बनाए गए नए अध्यक्ष राजनाथ सिंह को लेकर उत्साहित नहीं थे
आरएसएस के चहेते
आज जहां यह बात उठ रही है कि नितिन गडकरी को रोकने के लिए संघ पर दबाव बनाने की कोशिश कामयाब हुई. एक तरफ जहां कुछ लोग इस बात से खुश हो रहे हैं कि इस बार का अध्यक्ष संघ के मुताबिक नहीं बल्कि पार्टी के मुताबिक बना है असल में वह लोग भूल गए हैं कि राजनाथ भी संघ के सबसे बड़े चहेते हैं.
यह संघ ही है जिसने राजनाथ को 2005 में आडवाणी का उत्तराधिकारी बनाया था. उस समय ही राजनाथ खुद को संघ का वफादार साबित कर चुके थे. अपने पहले कार्यकाल में राजनाथ सिंह ने भाजपा पर पकड़ मजबूत करने में संघ की काफी मदद की है, इस दौरान उन्होंने खुद को भी पार्टी के अंदर मजबूत किया. आज जहां संविधान में बदलाव करके संघ द्वारा नितिन गडकरी को दोबारा राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने की बात कही जा रही थी. असल में संघ इस तरह की बात राजनाथ को फिर से पार्टी अध्यक्ष बनाने के लिए 2009 में कर चुका था.
फूट डालो और राज करो वाली नीति
मासूम दिखने का नाटक करने वाले वाले राजनाथ को फूट डालो और राज करो वाली नीति की सोच के लिए भी जाना जाता है. आज जहां आडवाणी जी बात कर रहे हैं कि पार्टी के अंदर गुटबाजी खत्म होनी चाहिए. ऐसा माना जाता है कि वह राजनाथ सिंह हैं जिन्होंने पार्टी के अंदर गुटबाजी और अंतर्कलह की परंपरा शुरू की. अपना जगह पक्की करने के लिए वे अपने विरोधियों के पर काटते रहे हैं.
राजनाथ की नाकामी
2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की तरफ से लाल कृष्ण आडवाणी पार्टी का चेहरा बने थे लेकिन मतदाताओं को आडवाणी के नेतृत्व पर पर्याप्त भरोसा नहीं था. हार का सारा ठीकरा आडवाणी पर फोड़ा जाने लगा. लेकिन जानकार मानते हैं कि 2009 के आम चुनाव में हार सुनिश्चित करने में राजनाथ की भी बड़ी भूमिका रही है.
ढुलमुल रवैये के लिए पहचाने जाने वाले राजनाथ ने पार्टी के कई पुराने मित्रों को भी तोड़ने का काम किया है. कल्याण सिंह के साथ उन्होंने रिश्ते इतने कड़वे कर लिए कि एक छोटी सी बात पर कल्याण ने भाजपा से किनारा कर लिया. राजनाथ ने झारखंड में बाबूलाल मरांडी के लौटने की हर संभावना समाप्त कर दी. उड़ीसा में ऐसी स्थितियां उत्पन्न कर दी गईं कि नवीन पटनायक ने भाजपा से गठबंधन तोड़ अपने बूते लड़ने का फैसला किया. वरुण गांधी का समर्थन करने में उन्होंने जरूरत से ज्यादा सक्रियता दिखाई और शहरी क्षेत्रों में वोटरों को पार्टी से दूर भगा दिया. यही नहीं उत्तर प्रदेश में उन्होंने सुनिश्चित कर दिया कि पार्टी संगठनात्मक स्तर पर पूरी तरह निष्क्रिय हो जाए.
राजनाथ पर आरोप लगते हैं कि उन्होंने एक विस्तृत आधार वाले राजनीतिक दल को एक संप्रदाय में तब्दील करने में बड़ी भूमिका निभाई है. उन पर जातिवाद या दूसरे शब्दों में कहें तो ठाकुरवाद के आरोप तो नियमित तौर पर लगते ही रहे हैं. नितिन गडकरी की तरह ही अपने पहले कार्यकाल में अपनी अक्षमता और असुरक्षा की भावना के चलते भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने भाजपा को इस हालत में ला खड़ा किया था कि पार्टी के अस्तित्व पर ही संकट मंडराने लगा.
Read:
Read Comments