पाकिस्तान में लाहौर की हत्यारी कोट लखपत जेल में जानलेवा हमले का शिकार हुए भारतीय कैदी सरबजीत सिंह का अंतिम संस्कार पूरे राजकीय सम्मान के साथ शुक्रवार को पंजाब स्थित उनके पैतृक गांव भिखीविंड में कर दिया गया. इस मौके पर मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल से लेकर कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी मौजूद थे. हजारों की संख्या में लोगों ने सरबजीत के अंतिम दर्शन किए और श्रद्धांजलि दी.
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सरबजीत से पहले शायद ही किसी भारतीय कैदी को इस तरह का राजकीय सम्मान और श्रद्धांजलि दी गई हो. अब मन में सवाल यह उठता है कि आखिरकार सरबजीत को ही क्यों इस तरह का सम्मान दिया गया. इससे पहले भी कई ऐसे भारतीय कैदी थे जो पाकिस्तान की जेलों में कई सालों से सड़ रहे थे और किसी ने भी उनकी स्थिति के बारे में जानकारी नहीं ली कि वह जिंदा हैं या फिर मर गए.
एक ऐसा ही मामला जांबाज जासूस और ब्लैक टाइगर के नाम से विख्यात रविन्द्र कौशिक से जुड़ा हुआ था, जिसने 2001 में बिगड़ती तबीयत के कारण पाकिस्तान की जेल में दम तोड़ दिया था. राजस्थान के श्रीगंगानगर के रहने वाले रॉ एजेंट रविंद्र की कहानी फिल्मी जेम्स बॉन्ड से कम नहीं है. रवींद्र कौशिक ऐसा ही रॉ का एजेंट था. कौशिक को रॉ ने 1973 में एजेंट बनाया था और कुछ सालों के बाद ही वह पाकिस्तान में रेजीडेंट एजेंट बन गए थे. उन्होंने अपना नाम बदलकर नबी अहमद रख लिया था. रविंद्र ने पाकिस्तान के एक कॉलेज में एडमिशन लिया और एलएलबी की डिग्री पूरी की जिसके बाद वह पाकिस्तानी सेना में क्लर्क बन गए. 1983 में अपनी गिरफ्तारी तक उन्होंने रॉ को कई खुफिया सूचनाएं भेजी थीं. रेजीडेंट एजेंटों में से कई अविवाहित होते हैं और किसी लड़की से शादी करके स्थायी नागरिकों की तरह रहने लगते हैं. रवींद्र ने भी पाकिस्तानी सेना के एक अधिकारी की लड़की से शादी की थी.
लेकिन जब पाकिस्तान खुफिया एजेंसी को रवींद्र के असली पहचान के बारे में मालूम चला तब से रविंद्र के साथ पाकिस्तान की जेल में बर्बरतापूर्वक अत्याचार किया गया. गौर करने वाली बात यह रही कि भारत सरकार और खुफिया एजेंसियों के उपेक्षापूर्ण रवैये के चलते रवींद्र कौशिक जैसे जासूस गुमनामी की मौत मर गए. मौत के बाद भी सरकार ने रविंद्र को इस लायक भी नहीं समझा कि उनका शव भारत वापस लाया जाए. बताया जाता है कि पाकिस्तान के जेल अधिकारी ने भारतीय उच्चायोग से रवींद्र की लाश भारत पहुंचाने के लिए कहा था. लेकिन उच्चायोग का जवाब था कि उसे वहीं दफना दिया जाए.
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लगभग 23 सालों से पाकिस्तान की जेल में बंद सरबजीत सिंह की कहानी भी जासूस रवींद्र कौशिक से मिलती है. रविंद्र की तरह ही सरबजीत को भी कई ऐसे झूठे अवसर मिले जिसमें उन्हें लगा कि उन्हें रिहा करके भारत भेज दिया जाएगा. लेकिन अंत में उनका शव ही भारत में आया और यहां पर उन्हें वह सब सम्मान दिया गया जो भारतीय एजेंट होने के बावजूद भी रविंद्र जैसे कई जासूस कैदियों को नहीं मिल पाया. तो क्या यह कहा जाए कि सरबजीत का मामला रविंद्र कौशिक जैसे भारतीय कैदियों के मुकाबले ज्यादा बड़ा था या फिर जासूस न होने की वजह से सरबजीत को यह सम्मान मिला.
तब सवाल यहां एक और उठता है कि जासूस न होने की वजह से सरबजीत के साथ 23 सालों तक मौत का खेल क्यों खेला गया? जानकर मानते हैं कि सरबजीत को लेकर संशय लोगों में हैं. असल में वह भारतीय खुफिया तंत्र से जुड़े थे जिसे भारत ने कभी भी स्वीकार नहीं किया. उसे भी रविंद्र कौशिक की तरह मरते हुए छोड़ दिया गया. शायद इसके पीछे सरकार और खुफिया तंत्र की आंतरिक नीति होगी जो कभी यह नहीं चाहती कि भारतीय कैदियों की पहचान को उजागर करके अपने तंत्र की नीतियों को सबके सामने लाए.
जानकार यह भी मानते हैं कि यदि खुफिया तंत्र यह स्वीकार कर भी ले कि फलां जासूस हमारे देश का है और उसे किसी भी वजह से छोड़ दिया जाता है तो खुफिया तंत्र उसे कभी भी स्वीकार नहीं करती. क्योंकि उन्हें मालूम रहता है कि एक बार पकड़े जाने के बाद वह जासूस शक की निगाहों में आ जाता है. इसलिए सरकार और खुफिया तंत्र अपनी तरह से कोशिश करती हैं कि जासूस के परिवार को हर संभव सहायता देकर इस मामले को बाहर आने न दिया जाए.
फिर यहां सवाल सरबजीत की बहन दलबीर कौर पर भी उठता है जो सरबजीत की मौत के बाद भारत की सरकार पर सवाल उठा रही थीं लेकिन बाद में अपने बयानों से बदलती हुई दिखीं. जानकार मानते हैं कि इसके पीछे का तर्क यही हो सकता है कि सरकार की तरफ से दी जाने वाली सहायता ने उनके मुंह को बंद कर दिया गया था. यह मामला सरकार की नीयत से भी जुड़ा हुआ है जो पहले से ही कई घोटालों के जाल में घिरी हुई है. सरकार यह कभी नहीं चाहती कि एक और आरोप उन्हें सवालों के घेरे में डाल दे.
तो ऐसे में यह कहा जा सकता है कि सरकार पैसे के बल पर अपने ऊपर लग रहे किसी भी मालले को दबा सकती है तो गलत नहीं है. इसका उदाहरण उत्तर पदेश के कुंडा में मारे गए पुलिस अधिकारी जिया उल हक की पत्नी को दिए गए कई लाख रुपए और नौकरियों की बौछार में मिलता है जिसके बाद इससे संबंधित कई सवाल भी उठाए गए थे. क्योंकि उत्तर प्रदेश की सत्ता पार्टी समाजवादी पार्टी नहीं चाहती थी कि यह मामला तूल पकड़े जिसका नुकसान उसे आने वाले लोकसभा चुनाव में उठाना पड़े.
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