1984 के दंगों की बात होती है तो सबके ज़ेहन में दिल्ली और पंजाब के सिक्खों की तस्वीर उभरती है. पर इनसे मीलों दूर बिहार के डाल्टेनगंज ने भी इस दंगे के दंश को झेला है. उस दौरान वहाँ सिक्खों के आशियाने आग की लपटों में धू-धू कर जले और उनकी खुशहाल ज़िंदगी के अरमानों की या तो अर्थियाँ निकाली या मरणासन्न कर दिया गया.
एक सिक्ख की कहानी जिसने ज़िंदा रहते हुए मौत को करीब से देखा-
तीस साल पहले मैं तीस वर्ष का था जब इस शहर की सड़कें हिंसा की गवाह बनी. मेरी शादी हो गई थी और एक छोटी सी बेटी थी. मैं अपने संयुक्त परिवार का हिस्सा था जिसमें माता-पिता के अलावा मेरे तीन भाई उनकी पत्नियाँ और बच्चे थे. तीन साल पहले मेरी बेटी का जन्म हुआ था जब मुझे अपने पैरों पर खड़े होने की जरूरत महसूस हुई और मैंने शहर की ही एक व्यस्त जगह पर ऑटोमोबाइल के पॉर्टस की एक दुकान खोली. एक अस्पताल, दो सिनेमा हॉल और कुछ स्कूलों वाला यह शहर बहुत बड़ा नहीं था जिसमें विभिन्न समुदाय के लोग मिल-जुल कर रहते थे.
31 अक्टूबर 1984 से पहले तक इस शहर की गुमनामी ही इसकी मासूमियत थी. वो बुधवार की शाम थी. कुछ चार बजे थे. भारत-पाकिस्तान के बीच चल रहा एक मैच बीच में ही रद्द कर दिया गया था. लोग अपने काम छोड़ रेडियो से चिपक गए थे और फिज़ाओं में यह खबर तैरने लगी थी कि ‘’बीबीसी के अनुसार इंदिरा गाँधी की हत्या कर दी गई है.’’ 4.30 बजे ऑल इंडिया रेडियो के द्वारा इस खबर की सत्यता की पुष्टि हो गई. प्रधानमंत्री की हत्या कर दी गई थी.
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वह छठ पूजा का अंतिम दिन था और मैं अपने एक हिंदू मित्र के आने की प्रतीक्षा कर रहा था जो हर साल मुझे पावन छठ का प्रसाद दे जाता था. कुछ घंटे गुज़र गए. लोग सदमे में थे फिर भी हर चीज दूसरे दिनों की तरह सामान्य नजर आ रही थी. दुकानें बंद होने लगी थी और लोग अपने घरों की ओर लौट रहे थे. अशोक के आते-आते मैं जाने की तैयारी कर रहा था. आते ही उसने कहा ‘’आज तुम्हारा घर जाना खतरे से खाली नहीं है.’’ अस्पताल के पास एक सिक्ख के अस्पताल को लूट लिया गया था और एक सिक्ख लांड्रीमैन पर पहले ही हमला हो चुका था. मैं घबराया हुआ था. दुकान की चिंता तो थी ही पर उससे ज्यादा घर-परिवार की चिंता मुझे सताने लगी थी.
आखिरकार मैं अपने हिंदू दोस्त के यहाँ ठहर गया. अगली सुबह उसकी खिड़की से बाहर झाँकने पर मुझे 600 लोगों की भीड़ दिखी जिन्होंने मेरे दुकान के दरवाज़े को तोड़ दिया. वहाँ उन्होंने तोड़फोड़ की और जी भर कर लूटपाट की. उस भीड़ में कुछ वैसे लोग थे जिनके साथ मैं शाम की चाय पीया करता था. पास की ही मेरे भाई की दुकान को लूटने के बाद उन्होंने उसमें आग लगा दी . पूरे दिन उस खिड़की के पीछे छुपा बैठा मैं अपने परिवार के बारे में जानने को बैचैन रहा. जिस घर में मैं छुपा था उसके मालिक को उस दिन धमकी भरे फोन आए. खराब टेलीफोन लाईन के ठीक होने के बाद ही मैं यह जान सका कि मेरे घरवाले भी मेरे पड़ोसी के घर में सुरक्षित हैं.
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दो नवम्बर को शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया लेकिन लूट और नरसंहार जारी रहा. सेना बुला ली गई थी. हालांकि चार नवम्बर को कर्फ्यू हटा दी गई लेकिन सेना के जवान कुछ दिनों तक वहीं रहे. उसके दो घंटे बाद मैं सिक्खों के एक समूह में शामिल होकर पुलिसवालों से मिला. मैंने उन्हें कहा कि, ‘’मैं एक पीड़ित हूँ और अपनी दुकान देखना चाहता हूँ.’’ उन्होंने मुझे कहा कि वहाँ कुछ नहीं बचा. लेकिन मेरे खुद से देखने की ज़िद के कारण मुझे वहाँ ले जाया गया. वहाँ कुत्तों द्वारा हमारा स्वागत किया गया. मेरी छोटी सी ज़िंदगी लूट ली गई थी. मैं वहाँ बैठ कर उस ज़िंदगी और उस सज़ा पर रोने लगा जो मुझसे छीन ली गई थी और जिसका कुसूरवार मैं नहीं था.
मैंने उस दंगे को जिया है- और आज 30 वर्ष बाद मैं किसी को छोड़ने या क्षमा करने को तैयार नहीं हूँ.
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