सरकारी विभागों में यह कोई पहली घटना नहीं है. सरकारी विभाग उसमें तैनात बड़े अधिकारियों की बपौती होती है और छोटे कर्मचारी और कानून उसके हाथ के मोहरें. बड़े अधिकारी कानून से खेलते हैं; कोई अकेले तो कोई कानून से खेलने के लिये अपना कुनबा तैयार कर लेता है. जब तक इस कुनबे का कोई विरोध नहीं करता तब तक सब ठीक दिखता है, लेकिन इसके विरूद्ध चूँ करने वालों की गर्दन मरोड़ दी जाती है. गर्दन मरोड़ने के लिये धारदार चाकू की जरूरत नहीं होती. इसके लिये बस स्याही भरी कलम को एसीआर या सर्विस रिकॉर्ड पर मनमाने तरीक़े से चलाना होता है.
ऐसे कई गुमनाम कर्मचारी और अधिकारी हैं जो सरकारी सेवा में पूरी ईमानदारी बरतने के बाद भी अपने उच्च पदस्थ अधिकारियों की मनमानी का दंश झेल रहे हैं. ऐसा दंश जिसके वो हक़दार नहीं हैं. एक ऐसा दंश जो उनके जैसे कई ईमानदार कर्मचारियों को कर्तव्यपरायणता और सेवा-निष्ठा के पथ से विमुख होने को विवश करते हैं. ऐसे कई कर्मचारी और अधिकारियों को अशोक खेमका, दुर्गा शक्ति नागपाल जैसे अधिकारियों की तरह जनता का भावनात्मक समर्थन तक प्राप्त नहीं है.
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एक ऐसे ही पुलिस अधिकारी का नाम है निर्विकार. अब उत्तराखंड पुलिस में 59 वर्षीय निर्विकार का परिचय एक निलंबित उप-निरीक्षक की है. हालांकि, इससे पहले उनका परिचय एक ऐसे अधिकारी के रूप में है जो ईमानदार है और जिसके लिये उन्हें वर्ष 2012 में तत्कालीन राज्यपाल द्वारा “उत्कृष्ट सेवा पदक” और वर्ष 2013 में वर्तमान पुलिस महानिदेशक द्वारा “पुलिसमैन ऑफ दि इयर” के सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है.
अफ़सोस, कि सिर्फ दो साल बाद उनकी पदोन्नति पर पूर्णविराम और उन पर कई आपराधिक मामले दर्ज़ करा दिये गये. इसके पीछे का कारण महज इतना है कि एक मामले में जाँच करते हुए उन्होंने अपने उच्चाधिकारी और राज्य के पुलिस महानिदेशक बी एस सिद्धू के पक्ष में जाँच को मोड़ने से मना कर दिया.
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दरअसल, महानिदेशक (रूल्स/मैन्युअल) के पद पर रहते हुए बी एस सिद्धू ने देहरादून के वीरगिरवाली क्षेत्र की आरक्षित वन भूमि पर ज़मीन खरीदी. करीब सात करोड़ की इस ज़मीन को खरीदते हुए सिद्धू ने इसकी कीमत 1 करोड़ 25 लाख दिखायी. इसी मामले में वन विभाग ने महानिदेशक बी एस सिद्धू के ख़िलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज़ करवा दिया. राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में मामला पहुँचने पर यह सामने आया कि राजस्व विभाग की त्रुटियों का लाभ उठाते हुए वह ज़मीन अवैध तरीके से खरीदी और उस पर उगे अनेकों पेड़ कटवाये. इसके अलावा वर्ष 2012-13 में यह ज़मीन खरीदते हुए उन्होंने शपथ-पत्र पर जिस विक्रेता का नाम लिखा उसकी मृत्यु वर्ष 1983 में ही हो चुकी थी. पुलिस की गोपनीय जाँच में बी एस सिद्धू की काली करत़ूतों पर मुहर लग गयी थी.
हालांकि, 09 जुलाई, 2013 को बी एस सिद्धू ने वन विभाग के अधिकारियों के विरूद्ध ही एफआईआर दर्ज़ करवा दी. इसमें उन्होंने आरोप लगाया कि वन विभाग के कर्मचारियों द्वारा ही पेड़ काटे गये हैं और ऐसा उन्हें बदनाम करने और उनकी आड़ में जमीन का सौदा करने के लिए लिया जा रहा है. इसी प्रथम सूचना रिपोर्ट की जांच आगे चलकर निर्विकार के पास आई.
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वास्तविक जाँच अधिकारी के छुट्टी पर चले जाने के कारण इस मामले की जाँच निर्विकार के जिम्मे आयी. दूसरे अधिकारियों के जरिये महानिदेशक बी एस सिद्धू ने गवाहों के बयान बदलने का दबाव निर्विकार पर बनाया. लेकिन, निर्विकार ने जाँच अधिकारी रहते ऐसा करने से इंकार कर दिया. यह अपने उच्चाधिकारी से ली गयी एक ऐसी दुश्मनी थी जिसकी कीमत निर्विकार को निलंबित होकर चुकानी पड़ी. उनकी शैक्षणिक योग्यता पर सवाल उठाया गया और जाँच में लापरवाही बरतने का आरोप लगा सेवा से उनको निष्काषित कर दिया गया.
प्रोन्नति से पहले बतौर महानिदेशक बी एस सिद्धू ने साक्षात्कार में उन्हें चार अंक देकर उनसे कम योग्यता वाले अधिकारियों को उनसे आगे रखा. प्रोन्नति पाने वाले अधिकारियों की सूची में उन्हें 19वें स्थान पर रख इस दौड़ से बाहर कर दिया गया. अपनी सेवा अवधि में स्वयं पर कालिख़ें पोत आज भी बी एस सिद्धू पुलिस के सर्वोच्च पद पर तैनात हैं और निर्विकार निलंबित. जुलाई 2016 में उनकी सेवा से निवृत्ति है.Next….
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